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जन-सेवा तप के रवि प्रचण्ड औघड़ भगवान राम : डॉ. बामदेव पाण्डेय



 28/Nov/25

मनुष्य का स्वभाव है कि वह नवीन विचार वस्तु या घटनाओं की तरफ तीव्रता से आकर्षित होता है, भले ही वे बुरी क्यों न हों। आज यह प्रवृत्ति अनियंत्रित हो गयी है जिसका दुष्परिणाम हमारा समाज भुगत रहा है। सदियों पूर्व जो कथित धर्म या मजहब हमारे भार‌तीय उपमहाद्वीप अर्थात् दक्षिण एशियाई भूभाग पर बाहर से आकर आश्रय पाये वे इस विशाल क्षेत्र की धार्मिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक विरासत को क्षत-विक्षत कर दिये। अब ये खून-खराबा कर यहाँ के मूल धर्म के उन्मूलन में दृढ़‌ता से लगे हैं। पूजा-पाठ, जाप, हवन इत्यादि की जो हमारी सनातन संस्कृति थी, वह तेजी से सिमटती जा रही है और इसके बदले में विदेशी धर्म और संस्कृति हमारे सामाजिक और राष्ट्रीय परिवेश को विषाक्त बनाती जा रही है। देश में आर्थिक, वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति तो अवश्य हो रही है लेकिन हम मानवता से दूर ही होते जा रहे हैं।

औघड़-अघोरेश्वर तथा ऋषि-मुनियों के विचारों से सिंचित और प्राचीनतम सभ्यता व संस्कृति वाले देश में ही आज इन विचारों का प्रवाह अवरुद्ध हो गया है। हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोश की पुस्तकों या इंटर‌नेट पर भी औघड़ या अघोर की जो परिभाषा या व्याख्या की गयी है वह अत्यन्त भ्रामक और निन्दनीय ही है। बहुत दुखद है कि ऐसे दुष्प्रचार पर इस देश में या अन्यत्र, किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं है। औघड़ भगवान राम जिन्हें ही परमपूज्य अघोरेश्वर भगवान राम या अवधूत भगवान राम भी कहा जाता है, के द्वारा स्थापित संस्था श्री सर्वेश्वरी समूह में आने से ही पता लगता है कि औघड़ कितना पवित्र और जन-सेवा को समर्पित होता है। वे बताये हैं कि जहाँ से बड़े-बड़े उपासक, साधक और चिन्तक थककर लौट चुके हैं उस स्थान से औघड़-अघोरेश्वर प्रारंभ करते हैं। उनकी लीचड़ वृत्ति नहीं होती। जिसको तुम लीचड़ व्यक्ति देखो, वह कपालेश्वर का सान्निध्य नहीं प्राप्त करता। जिनका तन स्वच्छ है, मन स्वच्छ है, जिनकी सभी इन्द्रियाँ स्वच्छ हैं, जिनका चित्त निर्मल है, वे ही जन, सज्जनों के स्नेह के भाजन होते हैं। ऐसे व्यक्ति दुर्जनों को तो कटु, दुःखप्रद जान पड़ेंगे ही, क्योंकि दुर्जनों का देश, समाज और अपने-आप से भी बैर होता है। अतः वे तुमसे स्नेह कैसे करेंगे ? वे परनिन्दक, परछिद्रान्वेषी, पराये की टीका-टिप्पणी करने वाले, नाप-तौल करने वाले होते हैं। वे दुर्जन होते हैं।

जो अथाह हैं, थाहे नहीं जा सकते, वे अघोर, औघड़, अघोरेश्वर, अयोनिजन्मा सरीखे होते हैं। जैसे, किसी के घर में कोई बच्चा उत्पन्न हो तो वह समझ ले कि वह बच्चा अमुक माँ के गर्भ से उत्पन्न हुआ है, तो यह सही नहीं होगा। उसी पिण्डमय, पंचतत्वमय शरीर में जो आत्मा है, प्राण है, वह आगे चलकर विकसित होने पर पूर्ण मनुष्य के कृत्यों से आच्छादित, सन्त, महात्मा, विद्वान, औघड़-अघोरेश्वर के आदर्श आचरण से परिपूर्ण, अजन्मा कहा जाता है। यह बड़ा ही गुप्त रहस्य है। इन औघड़-अघोरेश्वरों की आत्मा वायुमंडल से, उच्च या सामान्य कुल की सत्यवती, तपस्विनी नारी के गर्भ से उत्पन्न बालक के शरीर में प्रविष्ट करती है। 'बरबरनी', निन्दनीय कृत्यों में संलग्न, नारी के गर्भ से कामाग्नि बुझाने के प्रयत्न में जन्म लिया हुआ शिशु हर मर्यादा को भंग करने वाला, कुलघातक होता है। उसके शरीर में प्रविष्ट की हुई आत्मा असुर प्रवृत्ति का अनुसरण करने वाली होती है।

परमपूज्य अघोरेश्वर ने जनसेवा को जिस गहराई तक विस्तार दिया है वहाँ तक स्थिर मन-मस्तिष्क वाले ही पहुँच सकते हैं। उन्होंने रोग, दुःख, मोह, लोभ जैसी सभी समस्याओं का निवारण बताया है तथा अन‌गिनत बहुत गिरे हुए व्यक्तियों को भी उठाकर उनका उद्वार किया है। राष्ट्र ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में चल रहे उथल-पुथल के प्रति वे अत्यन्त संवेदनशील रहते थे। राष्ट्रहित को सर्वोपरि समझने का जो व्रत उन्होंने धारण कराया है वह श्री सर्वेश्वरी समूह के माध्यम से अनवरत चल रहा है और चलता रहेगा। उनका प्रत्येक शब्द मानवता के उत्थान के लिए है, आत्म-उद्धार के लिए है। असीम शक्ति से परिपूर्ण परमपूज्य अघोरेश्वर ने कहा है कि ईश्वर की आवाज झोपड़ियों से आती है, महलों से नहीं। अनेक पुस्तकों के रूप में उन्होंने जिस साहित्य का सृजन किया है, वह जीवन या मानवता का सर्वोतम साहित्य है। विश्व के किसी भी देश का संविधान अपने नागरिकों को जीने की वह व्यवस्था नहीं दे सकता जो परमपूज्य अघोरेश्वर के साहित्य अध्ययन से हो सकता है। बहुत दुःख है कि आज के चकाचौंध भरे परिवेश में कथित साहित्यकारों द्वारा कुछ और ही परोसा जा रहा है। अपने निम्त संस्कारों के कारण हमारे समाज के नेतृत्वकर्ता इस देश की सभ्यता-संस्कृति के अनु‌सार अपना कर्तव्य निर्वहन नहीं कर पा रहे हैं। इनकी इस उदासीनता ने दीर्घकालिक समस्याओं को जन्म दिया है।

 


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