तेजस्वी की रैलियों में भीड़, फिर वोट कहां गए...
बिहार चुनाव से विपक्ष को एक बात तो अब सीख लेनी चाहिए कि एमवाई या सिर्फ मुस्लिम वोटों के भरोसे पर अब राजनीति का रण नहीं जीता जा सकता है। अगर राजनीति में बने रहना है और मोदी मैजिक से पार पाना है तो अब पार्टी की अंदरूनी कमजोरीयों और आपसी मतभेद को दूर करना बहुत जरूरी हो चुका है। 14 नवंबर 2025 की तारीख बिहार के सियासी इतिहास में दर्ज हो गई। 14 नवबंर को जारी बिहार विधानसभा के चुनाव परिणामों में NDA गठबंधन ने प्रचंड जीत हासिल की, जबकि महागठबंधन 40 सीटों का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाया। बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के नतीजों में एनडीए गठबंधन ने प्रचंड जीत हासिल की, जबकि महागठबंधन 40 सीटों का आंकड़ा भी पार नहीं कर सका। बिहार चुनाव के नतीजों ने एक बार फिर साबित कर दिया कि राजनीति में कोई समीकरण स्थायी नहीं होता। कभी जीत की गारंटी माने जाने वाला आरजेडी का पारंपरिक एमवाई फैक्टर (मुस्लिम–यादव) इस बार प्रभावी साबित नहीं हुआ। एनडीए ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की, जबकि आरजेडी 25 सीटों पर सिमट गई। वहीं महिला मतदाताओं की बढ़ती भागीदारी, ओबीसी समुदाय का बदलता समर्थन और मुस्लिम वोटों का बिखराव इसके मुख्य कारण हैं। महिलाओं ने विकास और सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित किया है, जबकि ओबीसी समुदाय ने विभिन्न दलों को समर्थन दिया है। मुस्लिम वोट भी कई दलों में बंट गए हैं।
इस चुनाव का सबसे बड़ा फैक्टर रहा महिला मतदाताओं का प्रचंड समर्थन एनडीए को मिलना साथ ही चुनाव से ठीक पहले महिलाओं के खातों में 10,000 रुपये की सहायता सोने पर सुहागा का काम किया है। वहीं उससे पहले की योजनाएं उज्ज्वला, हर घर नल-जल, पोषण और छात्राओं को आर्थिक मदद ने बिहार के वोटरों पर सीधा असर डाला है। जिस वजह से गांव-देहात से लेकर कस्बों तक महिलाएं बड़ी संख्या में NDA की ओर खिसक गई और प्रचंड बहुमत देने में महिलाओं ने जबरदस्त काम किया। इस “लेडी फैक्टर” ने एमवाई समीकरण के असर को बहुत हद तक निस्प्रभावी कर दिया।
यादव समुदाय पर आरजेडी की पकड़ मानी जाती है, लेकिन इस बार कई सीटों पर बीजेपी-नीतीश ने यादव प्रत्याशी उतारे थे जबकि स्थानीय नेता और पंचायतों में सक्रिय चेहरे NDA के पक्ष में काम करते दिखे थे फिर भी कानून-व्यवस्था और स्थिरता का मुद्दा कुछ शहरी युवाओं को NDA की तरफ ले गया जिससे कुल मिलाकर यादव वोटों में 3–7% का स्विंग हुआ, जिसने कई सीटों पर खेल बदल दिया। कुशवाहा, कुर्मी, धानुक, बिंद, निषाद, पासवान, और गैर–यादव पिछड़ों ने इस चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाई है, इन जातियों में NDA का प्रभाव पहले से ही मज़बूत था और इस चुनाव में भी यही वोटर NDA की जीत का “ब्राह्मास्त्र” बने रहे, गैर–यादव OBC वोटों का भारी झुकाव एमवाई समीकरण को और कमजोर कर गया है।
वहीं पिछले चुनावों में मुस्लिम वोट लगभग पूरी तरह RJD-कांग्रेस के पक्ष में जाते थे। लेकिन इस बार स्थिति बहुत ही अलग रही। जबकि AIMIM ने कई मुस्लिम बहुल सीटों पर अपने मजबूत उम्मीदवार उतारे थे जबकि कांग्रेस में टिकट वितरण की असंतुष्टि साफ देखने को मिल रही थी। कुछ जगहों पर मुस्लिम समुदाय की स्थानीय पसंद अलग रही है पर कुछ सीटों पर बीजेपी के अल्पसंख्यक कार्ड ने सेंध लगाई जिससे परिणाम यह हुआ कि मुस्लिम वोटों में भारी बिखराव दिखा और एमवाई की “M” कमजोर पड़ गई।
बिहार चुनाव में NDA का “जंगलराज” नैरेटिव असरदार रहा, एनडीए ने चुनाव भर लालू-राबड़ी शासन की याद दिलाने वाली कहानी पर जोर दिया तो पोस्टर, बयान और नेताओं के भाषण लगातार “जंगलराज” की छवि उभारते रहे है। इस प्रचार की वजह से युवाओं, मध्यम वर्ग और पहली बार वोट देने वालों के बीच आरजेडी के प्रति हिचक बढ़ी है। यह नैरेटिव ग्रामीण क्षेत्रों में भी असरदार रहा है।
विपक्षी नेता तेजस्वी की लोकप्रियता काफी दिख रही थी लेकिन संगठन कमजोर पड़ गया। तेजस्वी यादव की रैलियों भारीं, भीड़ उमड़ी, माहौल बना लेकिन ज़मीनी स्तर पर बूथ प्रबंधन बहुत ही कमजोर रहा। महागठबंधन में टिकट वितरण विवादित, वरिष्ठ नेताओं में समन्वय की कमी, कई सीटों पर स्थानीय स्तर पर पार्टी की पकड़ ढीली रही। इन कारणों से एमवाई का संभावित फायदा वोट में नहीं बदल सका।
बिहार चुनाव 2025 का संदेश साफ है कि जातिगत पहचान की राजनीति अब अकेले चुनाव नहीं जिता सकती।