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बेटी ने दी पिता को मुखाग्नि-नारी सशक्तिकरण और पारिवारिक संस्कारों का अद्भुत उदाहरण



 14/Nov/25

वाराणसी। शहर के प्रख्यात व्यवसायी एवं समाजसेवी राकेश कुमार अग्रवाल के निधन के बाद हुए अंतिम संस्कार में एक ऐसा भावनात्मक और प्रेरणादायक दृश्य देखने को मिला जिसने सभी की आंखें नम कर दीं। उनकी बड़ी पुत्री पूजा अग्रवाल ने अपने पिता को मुखाग्नि दी। यह क्षण न केवल नारी सशक्तिकरण का प्रतीक बना, बल्कि भारतीय पारिवारिक संस्कारों, शिक्षा और बेटी के कर्तव्यनिष्ठ भाव का अनुपम उदाहरण भी बन गया।

समाज में जहाँ आज भी कई स्थानों पर बेटियों को पारंपरिक संस्कारों में सीमित माना जाता है, वहीं राकेश कुमार अग्रवाल के परिवार ने इस रूढ़ि को तोड़कर एक नया संदेश दिया। अंतिम संस्कार के समय उपस्थित लोगों ने इस घटना को परिवार की दृढ़ता, शिक्षा और उच्च संस्कारों की झलकबताया।

बीते एक महीने से बीमारी के दौरान उनकी दोनों पुत्रियाँ अपने पिता की सेवा में निरंतर लगी रहीं। उन्होंने अपने पेशेवर जीवन की चिंता किए बिना पूरी निष्ठा और प्रेम से अपने पिता की सेवा की। परिवारिक सदस्य अनिल कुमार जैन ने बताया कि बड़ी पुत्री पूजा अग्रवाल निजी क्षेत्र में नौकरी करती हैं, परंतु जब सेवा के दिनों में नौकरी पर लौटने का प्रश्न उठा, तो उनकी सासु माँ ने कहा कि अभी तुम्हारे पिता को तुम्हारी ज़रूरत है, नौकरी तो फिर मिल जाएगी।यह संवाद भारतीय परिवार व्यवस्था की संवेदनशीलता, त्याग और संस्कारों की गहराई को उजागर करता है।

स्व.राकेश कुमार अग्रवाल अपने सरल, धर्मनिष्ठ और विनम्र स्वभाव के लिए जाने जाते थे। जिन्होने हर वर्ग के लोगों की मदद को अपना कर्तव्य समझा। वे हमेशा दूसरों की भलाई के लिए तत्पर रहते थे और अपने कार्यों से समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने की कोशिश करते थे। अंत्येष्टि के बाद आर्य समाज पद्धति से त्रिरात्रिका आयोजन उनकी दोनों पुत्रियों द्वारा किया जा रहा है, जो परिवार की धार्मिक आस्था और परंपराओं के प्रति सम्मान को दर्शाता है। इस विधि में पुत्रियों का नेतृत्व करना समाज के लिए एक नई सोच और सशक्त उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है।

दो पुत्रियाँ, दो नतिनी और दोनों के पति ही स्व. राकेश कुमार अग्रवाल का परिवार हैं, जो आज भी उनके द्वारा सिखाए गए संस्कारों, सेवा भावना और मानवीय मूल्यों को आगे बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध हैं।

 

राकेश कुमार अग्रवाल के जीवन से यह शिक्षा मिलती है कि संस्कार और सेवा की परंपरा लिंग से नहीं, भावना से तय होती है। उनकी पुत्रियों ने जिस दृढ़ता और संवेदनशीलता से अपने पिता का कर्तव्य निभाया, वह समाज में एक नई प्रेरणा बन गई है।

 


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