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बनारस के पत्रकार राकेश चतुर्वेदी यूं ही अचानक चले गये

विजय विनीत

 07/Aug/20

स्मृति शेष

का गुरु...! आखिर बिना बताए चले गए?
 

कितना मुश्किल होता है, एक पत्रकार का उन खबरों को लिखना, जो लाशों से गुजरी हों...। जो अस्पताल में चीखी हों...। जो आंसू बहाकर सामने आई हों...। साथी पत्रकार राकेश चतुर्वेदी के यूं ही अचानक चले जाने के बाद आज पहली बार महसूस हो रहा है कि कितना मुश्किल होता है, गिरते हुए आंसुओं को लफ्जों में बताना...। बनारस के फक्कड़ पत्रकार राकेश को अनगिनत आंखें तलाश रही हैं। हमारे सवाल पर सवाल कर रही हैं। आखिर कौन गुनहगार है राकेश चतुर्वेदी की मौत का?
राकेश कोई मामूली इंसान नहीं थे। वो काशी के सेलिब्रिटी पत्रकार थे। इनके अंदर एक ऐसा जिंदादिल इंसान था, जो समाज का दर्द, सिसकियां, करुणा-पीड़ा और प्राणों के चीत्कार की भाषा पल भर में पढ़ लेता था। हमेशा सामाजिक दायित्वों की गठरी लादकर चलने वाले राकेश बीएचयू गए तो नहीं लौटे। झटपट चल दिए। साथी पत्रकार जब वहां हालचाल लेने पहुंचे तो एंबुलेंस पर लदी इनकी लाश के डरावने सायरन कानों के पर्दे को चीरते नजर आए। इस मंजर को जिन पत्रकार साथियों ने देखा है, उनकी जुबां से कोई शब्द नहीं फूट पा रहे हैं। शहर के एक सेलिब्रिटी पत्रकार की लाश सरकार और नौकरशाही के लिए अब शायद कोई मायने नहीं रखती। कलेक्टर को छोड़ दें तो एक भी अफसर और नेता-परेता सांत्वना के दो शब्द भी बोलने के लिए तैयार नहीं हैं। 
एक वो भी दौर था जब बनारस शहर के अस्पतालों में पत्रकारों को कामन आदमी की तरह इलाज से लिए लाइन नहीं लगानी पड़ती थी। सांसदों और विधायकों की तरह मिलती थीं चिकित्सकीय सुविधाएं। सिविल सर्जन तक खड़े हो जाया करते थे। आज उस बनारस का पत्रकार भीड़ में मर रहा है जहां के सांसद देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। मोदी ने बीते 21 मार्च को जनता कर्फ्यू के संबोधन के दौरान मीडिया को आवश्यक सेवाएं घोषित किया था। मीडिया आवश्यक सेवाओं का हिस्सा हैं, मगर हमारे साथ समाज बहिष्कृत जैसा व्यवहार हो रहा है?
कोरोना से कोई अछूता नहीं। बनारस के नेताओं को भी हो रहा है, लेकिन राकेश की तरह कोई यूं ही रुखसत नहीं हो रहा है। नेताओं के पास अकूत दौलत है। इनके इलाज दिल्ली के तारांकित होटलों में हो रहे हैं। हम तो कीड़ों-मकोड़ों से भी बदतर हो गए हैं। बड़ा सवाल यह है कि चौबीस घंटे ड्यूटी करने वाले चौथे खंभे की हालत आखिर किसने बिगाड़ी है?
राजधानी लखनऊ में पत्रकारों के कोरोना इलाज के लिए किंग जार्ज मेडिकल कालेज में कमरे आरक्षित कर दिए गए हैं। इलाज-भोजन की अच्छी सुविधाएं हैं? बनारस में पिछले पांच महीनों में ऐसा कोई माड्यूल डेवलप नहीं हो सका, जो लोकतंत्र के चौथे खंभे को अहसास कराता हो कि कोरोना के संकटकाल में उसका और उसके परिवार का जीवन सुरक्षित है। बनारस शहर में बहुत से पत्रकार हैं जो जीवन के आखिरी पादान पर हैं। कोरोना का खतरा इन्हें सबसे ज्यादा है, लेकिन क्या निर्मम प्रशासन ने इनके लिए कभी कुछ सोचा?
बनारस के किसी अस्पताल में कोरोना पीड़ित पत्रकारों के लिए कोई इंतजाम नहीं, कमरे नहीं। दवाएं नहीं, पानी नहीं है। इलाज की कौन कहे, कोरोना जांच के लिए अलग से कोई इंतजाम तक नहीं। सरकार के तमाम दावों के बावजूद कोई बीमा नहीं। हम आवश्यक सेवाओं के क्रम में सबसे नीचे हैं। आखिर क्यों?
साथी राकेश को कोरोना ने चुपचाप दबोच लिया और वो दुनिया से रुखसत हो गए। चौबेपुर के एक मामूली गांव में जन्मे राकेश की रुखस्ती इतनी खामोश और गुमनाम रहेगी? किसी को एहसास तक रहीं था। बताया जा रहा है कि वह कुछ दिनों से बीमार थे। फेसबुक पर मैने भाई धर्मेंद्रजी की पोस्ट पढ़ी तो जहन सुन्न हो गया। मुझे नहीं पता था किससे क्या सवाल पूछूं? कोरोना का जख्म हमने गहराई से सहा है। पूरी रात सो नहीं सका। क्या लिखता-जख्म..., दर्द..., बेचैनी.. और सामने पड़ी साथी राकेश चतुर्वेदी की लाश। थोड़ा संयत हुआ तो किसी तरह यह पोस्ट लिख पा रहा हूं।
राकेश चतुर्वेदी पत्रकारों की आवाज थे। उनके अचानक रुखसत होने से बनारस शहर के ढेरों पत्रकारों की उम्मीदों की मौत हुई है। वो उम्मीदें जो सिर्फ राकेश ही जगाते थे। वो इकलौते ऐसे पत्रकार थे जो ग्रामीण जिंदगियों को पर्दे से पार जाकर देखने का हिम्मत और हौसला रखते थे। मुझे याद है। सर्दी के दिनों में उन्होंने पत्रकारों के लिए महीनों योगा कैंप लगवाया था। क्या-क्या नहीं किया सबके उत्थान और तरक्की के लिए। उनका कोई अपना स्वार्थ नहीं था। वो सबके लिए सोचते थे। वो नीतियों में यकीन करते थे, व्यक्तियों में नहीं। हर गलत आदमी से भिड़ने का माद्दा रखते थे। न कोई खौफ, न घबराहट। कोई भी मिलता था तो उनकी मुस्कुराहट जिंदगी की ढेर सारी कड़ुवाहट हर लेती थी। मुझे याद है कि वो अक्सर 'ताज होटल' के सामने दुकान पर पान का लुक्मा घुलाने जरूर पहुंचते थे। 'फाइव स्टार' के नाम से प्रचलित पान की उस दुकान पर न जानें कितनी नजरें सालों-साल राकेश को ढूंढेंगी। मगर अफसोस, राकेश लौटकर नहीं आएंगे।
कोरोनावायरस दुनिया के हर हिस्से में फैल रहा है। ऐसे में करोड़ों लोगों को खबरें देने के काम की वजह से मीडिया लगातार चौकस बना हुआ है, जबकि मीडियाकर्मियों के संक्रमित होने का जोखिम सबसे ज्यादा है। मुझे याद है कि कोरोना संकटकाल के शुरुआती दौर में 75 दिनों तक मैने खुद स्टोरियां कीं। मैं खुद जब हॉटस्पॉट में जाता था तो एक सामान्य फेस मास्क और सेनिटाइजर की एक छोटी सी शीशी और बाबा भोले से प्रार्थना के अलावा मेरे पास सुरक्षा का कवच नहीं होता था। निश्चित रूप से खबर कवर करते समय डर होता है।
कोरोना की बीमारी से उबरने के बाद जब हम अपने आसपास के घटनाक्रम के बारे में सोचते हैं तो आप अपने परिवार की सुरक्षा को लेकर डरते हैं। अब हमारी खबरें भी बदल गई हैं। खामियां खोजने के बजाय इस बात पर जोर दे रहे हैं कि कोरोना योद्धा काम कैसे कर रहे हैं? हम कोशिश कर रहे हैं कि लोगों में डर और घबराहट पैदा न हो। ऐसे समय में सच्चाई दिखाना जरूरी है, मगर जिम्मेदार रहना भी वक्त की दरकार है। कोरोना के संकटकाल में अब जमीनी खबरें देना बड़ा मुश्किल काम है। भले ही सूचनाएं उपलब्ध हों, लेकिन कोई भी कार्यालय में बैठकर ही खबरें देने वाला पत्रकार नहीं बनना चाहता है। ऐसे संकट में पत्रकार के लिए जमीन पर होना जरूरी है।
बनारसी पत्रकार अपने जुनून की वजह से अपनी सुरक्षा से समझौता कर रहे हैं। मौजूदा दौर में कोरोना को लेकर पत्रकारों के सामने बड़ा संकट है। जो पत्रकार संक्रमित हुए हैं, उन्हें लेकर संकट कुछ ज्यादा ही है। लोगों को लगता है कि आप उन्हें भी संक्रमित कर देंगे। अगर आप कोरोना संक्रमित हैं तो आपके मन में हमेशा गलती की भावना रहेगी। मेरे पास अपने अनुभव को बयां करने के लिए कोई शब्द नहीं। अगर मीडिया के चौथे खंभे हैं तो बीमारी कतई नहीं पालिए। तुरंत कोरोना जांच और इलाज कराइए। बचने का दूसरा कोई रास्ता नहीं है। यह जान लीजिए कि कोरोना से भी वही इंसान मरते हैं जो दिमागी तौर पर मरने के लिए तैयार हो जाते हैं


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