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मेरे पास केवल सत्य है और सत्य में भीड़ नहीं होती, पीड़ होती है : मुरारी बापू, कथा वाचक



 17/Jun/25

संत सदैव प्रसन्न रहता है। उसका सिंदूर कोई नहीं मिटा सकता।

" मानस सिंदूर" राम कथा के आज के तीसरे दिन की शुरुआत में पूज्य बापू ने कहा कि जिस 'परम साधु ग्रंथ' को लेकर मैं विश्व भ्रमण करता हूं, उस रामचरित मानस में, तेरह लालसाएं बताई गई हैं और यह सब उत्तम लालसा है, जो विनाश नहीं करती, बल्कि सृजन करती है!

इस संबंध में पूज्य बापू ने "मानस लालसा" विषय पर कथा गान करने का मनोरथ व्यक्त किया।

एक श्रोता ने पूछा, "बापू! क्या आप फिर काशी में आओगे?"

बापू ने कहा, "मैं फिर से काशी जरूर आऊंगा और जब आऊंगा तब "मानस कबीर" लेकर आऊंगा।"

बापू ने कहा, "मैं महादेव का भक्त हूं। जैसे ही वे बुलाएंगे, मैं काशी आ जाऊंगा।" बापू ने संवाद करते हुए कहा कि,

"चुप रहना कायरता नहीं है, चुप रहना डरना नहीं है, चुप रहना हारना नहीं है।

मेरे साथ सिर्फ सत्य है और सत्य के पास भीड़ नहीं होती, पीड़ा होती है!"

पूज्य बापू ने यहां कबीरजी को उद्धृत करते हुए कहा कि कबीर कहते हैं, "मुझे कोई विधवा नहीं बना सकता, क्योंकि मैं राम की दुल्हन हूं।" बापू ने कहा कि "जिसका नाथ परमात्मा है, उसका सिंदूर कोई नहीं मिटा सकता! मेरे नाथ विश्वनाथ हैं - भूतनाथ है! मेरे नाथ यदुनाथ हैं, ब्रजनाथ है! मेरे नाथ रघुनाथ हैं! कुछ लोग कबीर और तुलसीदासजी की विचारधाराओं में भेद पैदा करते हैं। इस बारे में बापू ने कहा कि जो महान होते हैं, उनमें कभी आंतरिक संघर्ष नहीं होता, उनमें सामंजस्य - समन्वय होता है।

आप साधु की आबरु, प्रतिष्ठा या प्रगति को चुरा सकते हैं, लेकिन आप उसका सुख कभी नहीं चुरा सकते। भगवान शिव ही विश्वास हैं और हम सब विश्वासु लोग हैं। भरोसे का कोई सोपान नहीं होता। वहां पहुंचकर भी चूक गए, तो गिर जाते हैं! किसी से अपेक्षा मत रखो - गुरु से भी नहीं! बस, सिर्फ भरोसा रखो। साधु हमेशा प्रसन्न रहता है। उसका सिंदूर कोई नहीं मिटा सकता। सौराष्ट्र में कहा जाता है कि सिंदूर पिलाने से व्यक्ति की आवाज बंद हो जाती है। लेकिन आप चाहे साधु को सिंदूर भी पिला दो, आप उसकी आवाज बंद नहीं कर सकते! क्योंकि उस आवाज में सत्य होता है। और दूसरी बात यह है कि सत्य मुखर् नहीं होता, मौन होता है। फिर भी जब साधु बोलता है, तो प्रिय और मधुर बोलता है। बापू ने कहा कि इच्छा और आशा बंधन हैं। इच्छा पूरी हो जाए तो अहंकार आता है और इच्छा पूरी न हो तो अवसाद आता है। बापू ने कहा कि लालच अच्छी नहीं है, इससे लार टपकती है! लेकिन लालसा उत्तम है। लालसा प्रेम मार्ग का - भक्ति मार्ग का प्रिय शब्द है।

बापू ने कहा कि अन्य इच्छाओं को त्यागते हुए भी तीन इच्छाएं रखनी चाहिए। एक, पुनः जन्म लेने की इच्छा - बार-बार जन्म लेने की इच्छा। यह मेरा अपना मत है। व्यक्तिगत रूप से मुझे मुक्ति नहीं चाहिए, मुझे मुक्ति से भी अधिक मूल्यवान चीज चाहिए - वह है भक्ति। भगवान महादेव ने भी रामजी से अनपायनी भक्ति की इच्छा प्रकट की है। भरतजी ने भी "राम पद पर रति" की इच्छा व्यक्त की है। नरसिंह मेहता कहते हैं कि "हरि के लोग मुक्ति नहीं मांगते, बल्कि जन्म जन्म अवतार मांगते हैं..."

शास्त्र कहते हैं कि संसार मिथ्या है। शंकराचार्य भगवान ने भी कहा है कि "ब्रह्म सत्यम् जगत् मिथ्या।"

नरसिंह मेहता कहते हैं कि जगत मिथ्या कहाँ है? बिना दांत और नाखून के शेर से क्यों डरना? जिसके पास गुरु के चरण की नख है और जिसके पास दंत कथा नहीं, बल्कि संत कथा है, उसके लिए संसार मिथ्या नहीं है! अपने दर्शन को आगे बढ़ाते हुए बापू ने कहा कि कर्म मन की शुद्धि के लिए है, वस्तुओं की प्राप्ति के लिए नहीं। यदि कर्म करने के बाद भी चित्त बिगड़े, तो चाहे लाखों का लाभ क्यों न हो, वह प्राप्ति नहीं है। जिस कर्म से चित्त शुद्ध होता है, वही वस्तु की प्राप्ति कराता है। लेकिन यदि चित्त की शुद्धि के बिना वस्तु मिल जाए तो वह वस्तु कभी शांति नहीं दे सकती!

मैं गार्गी और मार्गी दो परम्पराओं के बीच में बह रहा हूँ । जन्म से हम मार्गी साधु हैं और विष्णुगिरि दादाजी गार्गी मत के- अर्थात् वेदांती हैं। मैं उन दो धाराओं के बीच में हूँ।

बापू ने कहा कि दूसरी इच्छा है जीवन की। सत्संग करते हुए प्रसन्नता से जीए, ऐसे जीवन की इच्छा करना। भजन करने के लिए जीवन होना चाहिए। भजन की इच्छा इस जीवन को

नव जीवन देती है। तीसरी इच्छा है - जानने की इच्छा होना। चार्वाक सम्प्रदाय का आदर्श वाक्य है - "ऋणं कृत्या घृतं पिबेत्" (ऋण कर के घी पीना)। इस सूत्र को नया रूप देते हुए बापू ने कहा कि -

"श्रृणं कृत्या अमृतं पिबेत्"

अर्थात बुद्धपुरुष के वचन सून कर, श्रवणामृत का पान करना ही जीवन जीने का तरीका होना चाहिए। बुद्धपुरुष के चरणों में बैठकर जीवन का रहस्य पाने की इच्छा होनी चाहिए। गुरु के अलावा हमारे जीवन का रहस्य और कौन पा सकता है?

आज की कथा में पूज्य बापू ने कहा कि "पार्वती मंगल" में "बंदन" शब्द के माध्यम से सिंदूर शब्द का उल्लेख किया गया है। बापू ने उसूव पद को प्रस्तुत करके, इस बात का प्रमाण प्रस्तुत किया।

कथा के क्रम में प्रवेश करते हुए पूज्य बापू ने रामचरित मानस का आध्यात्मिक इतिहास बताते हुए कहा, "शिव ही आदि कवि हैं, जिन्होंने रामचरित मानस की रचना की और उसे अपने मानस में धारण किया। मानस अनादि काल से विद्यमान है। उचित समय आने पर भगवान शिव सबसे पहले पार्वतीजी के समक्ष मानस कथा गाते हैं। पार्वतीजी रामचरित मानस की प्रथम श्रोता हैं। फिर वह कथा काक भुसंडजी के पास पहुंचती है। उसके बाद याज्ञवल्क्यजी के पास आती है। तुलसीदासजी ने वराह क्षेत्र में कृपालु गुरु से यह कथा सुनी थी। गुरु ने कथा को बार-बार सुनाया, जिसके बाद तुलसीदासजी को कुछ समझ में आया।

इस संबंध में बापू ने कहा, "कथा को बार-बार सुनना पड़ेगा। तब शायद कोई सूत्र जीवन में उतर जाए। जीवन में हर जगह डहापन का होना जरूरी नहीं है! आध्यात्मिक जगत में पागलपन भी जरूरी है। तुलसीदासजी ने रामचरित मानस का प्राकट्य १६३१ में रामनवमी के दिन त्रेता युग में किया था। राम के जन्म के समय जैसा योग था,वैसा ही योग रामचरित मानस के प्राकट्य समय पर भी बना था।

शिवजी ने रामकथा को अपने मानस में रखा था, इसीलिए इसे "रामचरित मानस" कहा जाता है। हिमालय के मानसरोवर और रामचरित मानस रूपी मानसरोवर की तुलना करते हुए पूज्य बापू ने कहा कि मानसरोवर दुर्गम है, जबकि मानस सुगम है। मानसरोवर में पानी है, जबकि मानस में बानी है। मानसरोवर में हंस है, जबकि मानस में परमहंस है। जो मानसरोवर में डूबता है, वह मर जाता है, जबकि जो रामचरित मानस रूपी मानसरोवर में डूबता है, वह तैर जाता है । पूज्य बापू ने थोड़ी रमुज में, "घर द्वार" और "हरि द्वार" की तुलना करते हुए कहा कि घर द्वार में आसक्ति होती है और हरिद्वार में भक्ति होती है। हरिद्वार की रक्षा श्री हनुमानजी महाराज करते हैं - "राम दुआरे तुम रखवारे...."

गुरुदत्त अर्थ के अनुसार श्री हनुमानजी का हृदय राम का घर है, जहाँ भगवान राम विश्राम पाते हैं। राम घर द्वार पर नहीं मिलेंगे, राम तो हरि द्वार पर ही मिलेंगे!

पूज्य बापू ने रामचरित मानस के चार घाटों को याद करते हुए कहा कि जहाँ रामचरित मानस पहली बार प्रकट हुआ वह कैलाश है, वहाँ "ज्ञान घाट" है, नीलगिरि पर्वत पर जहाँ काकभुषण्डिजी महाराज गरुड़जी को कथा सुनाते हैं, वह उपासना का घाट है। तीर्थराज प्रयाग में परम विवेकी याज्ञवल्कजी, मुनि भारद्वाजजी को कथा सुनाते हैं, वह कर्म का घाट है और गोस्वामीजी शरणागति के घाट से कथा सुनाते है।

तुलसीदासजी हमें शरणागति के घाट से, प्रयागराज में कर्म के घाट पर ले चलते हैं। भारद्वाजजी की जिज्ञासा पर याज्ञवल्क्यजी रामचरित मानस की कथा का गान शुरू करते हैं। भारद्वाजजी राम के प्रभाव को जानते हैं, लेकिन आत्मज्ञानी होते हुए भी राम के स्वरूप तक पहुँचने के लिए वे याज्ञवल्क्यजी के चरण पकड़ लेते हैं और उनसे राम की कथा सुनाने की प्रार्थना करते हैं।

राम मंदिर का द्वार शिव है, इसलिए राम की कथा शिव के चरित्र की कथा से शुरू होती है। कथा के क्रम में शिव के चरित्र के आरंभ तक पहुँचने के बाद पूज्य बापू ने आज की कथा को विराम दिया।

 

 

मेरे साथ केवल सत्य है और सत्य के साथ भीड़ नहीं होती, पीड़ होती है।"

"जिसका नाथ परमात्मा है, उसका सिंदूर कोई नहीं मिटा सकता! मेरे नाथ विश्वनाथ हैं - भूतनाथ! मेरे नाथ यदुनाथ हैं- ब्रजनाथ! मेरे नाथ रघुनाथ हैं!

घर द्वार पर आसक्ति है और हरिद्वार पर भक्ति।


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