जीवन के अन्तिम समय में मनुष्य की जैसी मति होती है वैसी ही गति उसकी हो जाती है। यदि हमने जीवन के अन्त में भगवान् का स्मरण किया तो हमें अच्छी गति प्राप्त होगी और यदि किसी दूसरे का स्मरण किया तो हमें दूसरे जन्म में वही बनकर जन्म लेना पड़ेगा।
उक्त बातें परमाराध्य परमधर्माधीश उत्तराम्नाय ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद्गुरु शङ्कराचार्य स्वामिश्रीः अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती '१००८' ने कोरोनाकाल में मृत आत्माओं की सद्गति के लिए काशी के श्री विद्यामठ में की जा रही मुक्ति कथा के अवसर पर कही।
उन्होंने कहा कि जिन बातों का अभ्यास हम जीवन भर करते हैं अन्त समय में हमारी बुद्धि भी वैसी ही हो जाती है। इसीलिए यह कहा गया है कि अच्छे वातावरण में रहें जिससे हममें अच्छी बातों का ही अभ्यास बना रहे।
आगे कहा कि राजा और संन्यासी का धर्म बडा कठिन होता है। सामान्य व्यक्ति यदि किसी को सम्मान देना चाहे हो तो बडी आसानी से अपने आसन से
उठकर उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित कर सकता है। किसी बच्चे के प्रति प्रेम प्रदर्शन करना हो तो कर सकता है लेकिन राजा और संन्यासी को मर्यादा में रहकर ही सम्मान और प्रेम प्रदर्शित करना होता है।
उन्होंने राजर्षि भरत, दक्षकन्या सती, पुरञ्जन उपाख्यान, काशी खण्ड से कलावती और विद्याधर आदि के अनेक प्रसंगों को उदाहरण के रूप में सुनाया और कहा कि इन सबकी गति अन्त काल की मति के अनुसार ही हुई। इसलिए हमें सदैव सतर्क रहना चाहिए क्योंकि अन्त काल कब आ जाएगा इसका पहले से किसी को भी पता नहीं रहता।
शङ्कराचार्य जी ने भगवन्नाम स्मरण के महत्व को बताते हुए कहा कि भगवान् के नाम-स्मरण में पापों को नष्ट करने की इतनी अधिक शक्ति है कि कोई व्यक्ति उतना पाप कर ही नहीं सकता।