राजा और संन्यासी दोनों सबके रिश्तेदार कहे जाते हैं पर राजा और संन्यासी में अन्तर बस इतना है कि राजा केवल अपनी सीमा का ही हित करता हैं परन्तु संन्यासी के लिए पूरा संसार की उसका अपना होता है इसीलिए वह सभी के कल्याण की चिन्ता करता है और वह दूसरे किसी का भी दुःख देखकर उसे दूर किए बिना आगे नहीं बढ पाता। जब हममें इस प्रकार के परोपकार की भावना आए तब समझना चाहिए कि हममें भी सन्तत्व आने लगा।
उक्त उद्गार परमाराध्य परमधर्माधीश उत्तराम्नाय ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद्गुरु शङ्कराचार्य स्वामिश्रीः अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती 1008 ने आज काशी के श्रीविद्यामठ में आयोजित कोरोना काल में मृत देश विदेश के सभी लोगों की मुक्ति के लिए कथा करते हुए कही।
उन्होंने कहा कि काशी को मुक्ति का जन्म स्थान कहा जाता है और ज्ञान की खान अर्थात् ज्ञान का भी जन्म स्थान कहा जाता है। इसीलिए इसी स्थान पर पितृपक्ष के अवसर पर यह कथा रखी गयी है। वैसे भी संन्यासी प्रतिदिन दण्ड तर्पण के समय सभी का तर्पण कर देते हैं। दण्ड के अग्र भाग से देवताओ का, मूल भाग से पितरों का, गाॅठ से गनधर्वों का और मध्य भाग से मानवों का तर्पण होता है।
पूज्य शङ्कराचार्य जी महाराज ने मुक्ति का वर्णन करते हुए कहा कि भक्तों को 5 प्रकार की मुक्ति मिलती है - सालोक्य, सामीप्य, सायुज्य, सारूप्य और सार्ष्टि पर जो ज्ञानी होता है उसे कैवल्य मुक्ति प्राप्त होती है।
उन्होंने कहा कि काशी में एक और काशी है जिसे सर्वप्रकाशिका कहा जाता है। इसे जिसने जान लिया उसके लिए हर स्थान काशी के समान हो जाता है। वह सर्वप्रकाशिका आत्मा ही है जिसे जान लेने पर और कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता।
कथा में मुख्य यजमान के रूप में गाजीपुर से पधारे श्री अरविन्द भारद्वाज जी ने पादुका पूजन किया। आचार्य पं वीरेश्वर दातार जी के आचार्यत्व में वैदिक मङ्गलाचरण, जप आदि अन्य धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न हुए।
कार्यक्रम का सजीव प्रसारण ओटीटी 56 एवं 1008.guru चैनल पर हुआ। आरती एवं प्रसाद वितरण से कार्यक्रम का समापन हुआ।