इस समय हमारा प्यारा देश बहुत ही विकट स्थिति से गुजर रहा है। सांप्रदायिकता और नफरत का बाज़ार अपने चरम पर है। ऐसा लगता है कि कानून व्यवस्था लागू करने वाली एजेंसियां और अधिकारी कानून को लागू करने में और अपने लोगों का विश्वास हासिल करने में विफल साबित हो रहे हैं। पीड़ितों की पुकार सुनने वाला कोई नहीं है। ऐसे में एक ज़िम्मेदार नागरिक के तौर पर हमारी भी कुछ ज़िम्मेदारियां हैं। निश्चित रूप से एक मुसलमान का ईमान तब तक पूर्ण नहीं हो सकता जब तक कि उसके दिल में अपनी, अपने माता पिता, अपने बच्चों और अपने धन दौलत से अधिक पैगंबरﷺ का प्यार न हो। हम अपने पैगंबरﷺ की शान में गुस्ताखी हरगिज़ बर्दाश्त नहीं कर सकते। हम कानून के दायरे में लोकतांत्रिक तरीके पर अपना विरोध दर्ज कराएंगे और इसके खिलाफ हर संभव कानूनी कार्रवाई भी करेंगे।
इस संबंध में जमीयत उलेमा-ए-हिंद की एक याचिका भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम सड़कों पर उतर जाएं और असामाजिक तत्वों के जाल में फंस जाएं। हम अपने युवाओं से अपील करते हैं कि खुदा के लिए होश में आओ, किसी के बहकावे में हरगिज़ मत आओ, आपका सड़कों पर उतरना सांप्रदायिक शक्तियों की जीत है, वो इस इंतज़ार में हैं कि आप सड़कों पर उतरे और वो अपने मकसद में कामयाब हो जाएं। यदि हम वास्तव में हम अपने नबीﷺ से मुहब्बत करते हैं, तो इसके लिए हमें आपकी शिक्षाओं को अपनाने की आवश्यकता है। नबीﷺ ने फरमाया: "जो तुमसे रिश्ता तोड़े, तुम उससे रिश्ता जोड़ो, जो तुम्हारे साथ ज़ुल्म करे तुम उसको माफ करदो, जो तुम्हारे साथ बदसुलूकी करे तुम उसके साथ एहसान करो।"
याद रखें कि नफरत को कभी भी नफरत से नहीं मिटाया जा सकता। कुरान कहता है, "जवाब दो उसके द्वारा जो उससे बेहतर हो, फिर तुम देखोगे कि जिससे तुम्हारी दुश्मनी थी, वह ऐसे है जैसे वह तुम्हारा सबसे अच्छा दोस्त है।" अंत में, मैं अपने युवाओं से अपील करता हूं कि अपने जज़्बात पर कंट्रोल करें, ये नफरती तत्व केवल मुट्ठी भर हैं (जो किसी भी समाज में हो सकते हैं), हम उनके बहकावे में आकर देश और समाज के लिए परेशानी और अपमान का कारण न बनें। अपने से बड़ों पर भरोसा करें और उनके बताए रास्ते पर चलें। अल्लाह की तरफ मुतवज्जाह हों, अपने गुनाहों की तौबा करें, नमाज़ बजामात का एहतेमाम करें। रात लंबी हो सकती है लेकिन इंशाअल्लाह सुबह भी ज़रूर होगी।